शनिवार, 21 नवंबर 2009


घर नही पर घर का नक्सा बनाते रहे

हकीकत को अपनी किस्सा बनाते रहे


जमी ही मिली ओढ़ने को उन्हें भी

फलक पे जो अपना आशिया बनाते रहे


कुछ लोग चाँद पे जाके लोट भी आए

हम घर तक जाने का रास्ता बनाते रहे


हकीकत हो या कोई हो ख्वाब "मीत"

फ़िर भी अंजान एक रिश्ता बनाते रहे

बदलो का चाँद भी शर्मसार हुवा है


जब से उसे आपका दीदार हुवा है


हर पल गुमसुम बेखुद यार हुवा है


शायद उसे भी तुमसे प्यार हुवा है

तन्हाई का हमने यू इन्तिजाम किया है

कि तेरी यादो का फ़िर एक जाम लिया है


नज़र आई है जब-जब तू मुझे पैमाने में

हमने झुक-झुक के तुझे सलाम किया है


दिल खोल के पी पर बहके नही कदम

हमने मैकदे का भी एहतराम किया है


मेरी तिशनगी से तू ना उलझ ये दरिया

मैंने समंदर का भी काम तमाम किया है

मैकदे का ये भी निजाम होना चाहिए

वाएज के हाथ मे भी जाम होना चाहिए



निकल न पाए दामन बचाकर कोई

सबके सर पे ये इल्जाम होना चाहिए



बाकी रहे ना यहाँ आके कोई होश मे

सब के लिए ये पैगाम होना चाहिए



शुकु मिलता है मैकदे मे आके "मीत"

इसका भी मन्दिर नाम होना चाहिए

मत पूछ चेहरे पे झुर्रिया कैसे आ जाती है

खेलते कूदते बचपन को फिक्र खा जाती है

उतर जाती है दिन भर की सारी थकन
जब ख्वाब मे माँ मुझे गले लगा जाती है



मत पूछ क्या होती है उस वक्त मेरी हालत
जब टेरिस पे आकर वो मुस्कुरा जाती है


जिसके दम पे रोशन चाहत की महफ़िल
देखो हो के रुसवा बज्म पे वफ़ा जाती है


बात छिडी जब इजहारे मोहोबत की तो
रुखसार सुर्ख क र वो शरमा जाती है


देख कर महफ़िल - ऐ-तन्हाई मे "मीत"


ले यादो का करवा वो मुझे सता जाती है



नासूर हो गय



गम के सफर से थक के चूर हो गया

लुफ्त जीने का यहाँ भरपूर हो गया


अना की खोच लगी थी नादानी मे

रिसते-रिसते आज वो नासूर हो गया


उसके पाँव के नीचे तक तो वो धूल था

बावरी ने माँग मे भरा सिंदूर हो गया

ख्वाबो मे शीशमहल बनाया था"मीत"

आँख खुलते ही वो चकनाचूर हो गया

शुक्रवार, 20 नवंबर 2009


मायुसिओं से घिर गया हूँ

सबकी नज़र से गिर गया हूँ


हिज्र की बेदर्द आंधियो मे

टूटकर शाख से बिखर गया हूँ


माजी के मंजर याद आए

देख आईना सिहर गया हूँ


एक उम्र खुली फजा मे रहा

मुददत बाद "मीत"घर गया हूँ

गुरुवार, 19 नवंबर 2009

आईना कर दे


इतना करम मुझपे तू खुदा कर दे

मेरी चादर मेरे कद से बड़ा कर दे


आज ख़ुद से बातें करनी है बहुत

तू मेरे सामने आज आईना कर दे


आजकल ख़ुद को मै ढूद्ता हूँ बहुत

ख़ुद के दरमिया तू फासला कर दे


तन्हा चलते -२ थक गया मै"मीत"

साथ अपनी यादो का काफिला कर दे

मंगलवार, 17 नवंबर 2009

उदास परिंदे .



दरख्त कट जाने से परिंदे उदास बैठे है

चोकते है आहट पे क्यों बदहवास बैठे है


मुफलिसी ने तो हया का कर लिया परदा

मशरिकी तो सभी यहाँ बेलिबास बैठे है


राह-ऐ-उल्फत मे हमने रूह फ़ना कर दी

एक वो लिए जख्मो का भी हिसाब बैठे है


रौशनी ना सही मेरे मुकद्दर मे तो क्या ?

हम तो पहलू मे लिए आफ़ताब बैठे है


मैंने सोचा वो भूल गया कल की बाते को

मगर वो लिए बचपन की किताब बैठे है

मुझे महजबी अपना गुलाम कर दे


बिखरा के जुल्फे फ़िर शाम कर दे
कुछ हसी पल आज मेरे नाम कर दे

मुद्दत से बहता है ये दरिया बनकर
अपने होठो से छूकर इसे जाम कर दे

अब तलक छुपा रखा है जो हिजाब मे
उठाकर परदा जलवा- ऐ-आम कर दे

कैद कर जलवा-ऐ-हुस्न की जंजीर से
मुझे भी महजबी अपना गुलाम कर दे

शनिवार, 14 नवंबर 2009

हर चीज कारोबारी


जाने कैसी ये बीमारी लग गयी

हरे-भरे शजर मे चिंगारी लग गयी


फजावो मे एक धुंध सी छा गयी

हर चीज यहाँ तो कारोबारी लग गयी


हर लम्हा तो उम्मीदों के साथ था मै

फ़िर कैसे मेरे हाथ बेजारी लग गयी


अपना भी होता जहाँ मै एक मुकाम

पर मेरे पीछे मेरी खुद्दारी लग गयी


जाने खून के रिश्ते को क्या हो गया

कि घर मै अलग-२ अफ्तारी लग गयी

तेज रफ्तार है जिन्दगी


बहुत ही तेज़ रफ्तार है जिन्दगी
बहती दरिया की धार है जिन्दगी

सीने मे सांसो का आना -जाना
जैसे कि तेज कटार है जिन्दगी

बिक गया हूँ सब के अहसान से
मौत से मिली उधार है जिन्दगी

ख्वाबो मे जिसको देखा किए हम
उसी की ही सरोकार है जिन्दगी

अपने बारे मे क्या बताये जनाब
कुछ पल की और यार है जिन्दगी

जब से मुझसे मेरी खुशिया रूठी
तब से यहाँ से फरार है जिन्दगी

तेरा मिलना तो नामुमकिन है
फ़िर भी तेरी तलबगार है जिन्दगी

गर हकीकत को लिखू तो "मीत"
मेरी तो गुनाहगार है जिन्दगी

सब सिकंदर हो गए

जितने कलंदर थे सब सिकंदर हो गए
हम भी दरिया थे देखो समंदर हो गए

अब की बरसतो मे ऐसी धूप बरसी कि
खेत -खलिहान सारे ही बंजर हो गए

यहाँ किसने सियासी खेल खेला कि
खोफ़नाक हर- एक मंजर हो गएये

गम-ए-आशनाई तेरा बहुत शुक्रिया
तेरी इनायत से हम सुखनवर हो गए

मुकद्दर से इन्किलाब


आओं हकीक़त को बेनकाब किया जाए
मुआफी
मांग कुछ सवाब किया जाए

क्यों दामन से लिपट जाती है रुसवाई ?
चलो मुकद्दर से इन्किलाब किया जाए

कही चराग चराग बुझ न जाए उम्मीदों का

चलो उसे होसलो से आफ़ताब किया जाए


अब रातो को भी नीद आती नही "मीत"

किसी और के नाम अब ख्वाब किया जाए

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

आदमी मे आदमीयत क्या बात है


आदमी मे आदमीयत क्या बात है
हर-एक की नेक नीयत क्या बात
है

साकी ने शराब मे क्या शै मिला दी
वाएज़ को भी दी नसीहत क्या बात है

बदमिज़ाज हुवा शहर नए दौर के नाम
संस्कृति की ये फ़जीहत क्या बात है

माँ-बाप भगवान सामान यहाँ और
पत्थरों मे भी अकीदत क्या बात है

भूख खाते है और प्यास पीते है"मीत"
किसानो की ये है हकीक़त क्या बात है

रुलाकर मुझको वो भी रोया होगा

रुलाकर मुझको वो भी तो रोया होगा
जगाकर मुझको वो भी सोया होगा
चलो उसे हमदर्दी की धूप मे सुखा ले
जो तकिया उसने आसुवों से भिगोया होगा

मगरूर ना होना

मशहूर होना मगर कभी मगरूर ना होना
कामयाबी के नशे मे कभी चूर ना होना
मिल जाये भले सारी कायनात "ये मीत"
पर इनके लिए कभी अपनों से दूर ना होना

Rohit kumar "meet"